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पहले स्वयं को जानो

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 पहले स्वयं को जानो स्वामी विवेकानंद के प्रवचनों से प्रभावित होकर किसी ने कहा- “ लगता है आपकी पहुँच ईश्वर तक है । आप मुझे उस तक पहुँचा दीजिए । उसके मिलने का स्थान बता दीजिए । " स्वामी जी ने कहा- " आप अपना पता मुझे लिखा जाइए । जब ईश्वर को फुरसत होगी , तब उसे आपके घर ही भेज दूंगा । " वह व्यक्ति अपने मकान का पता लिखाने लगा । स्वामी जी ने कहा- " यह तो ईंट - चूने से बने घरौंदे का पता है । आप स्वयं अपना पता बताइए कि आप कौन हैं , किस प्रयोजन के लिए नियत थे और क्या कर रहे हैं ? 

जरूरत मंदों की सेवा हीं सबसे बड़ा धर्म है।

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  कलकत्ता ( कोलकाता ) में रामकृष्ण मठ की स्थापना हो चुकी थी । सारे भक्त संन्यास लेकर मठ में प्रवेश कर चुके थे । मठ का सारा काम मठ से लगी जमीन से चलता था । तभी कलकत्ता ( कोलकाता ) में प्लेग का प्रकोप हुआ।लोग बुरी तरह बीमार होने और मरने लगे । स्वामी विवेकानंद जी से यह देखा न गया और उन्होंने मठ को शुश्रूषा - शिविर में बदल दिया । सारे अध्यात्मसाधकों को सेवाकार्यों में लगा दिया और कहा- " आज भगवान अपने सच्चे भक्तों और सच्चे संन्यासियों की परीक्षा ले रहे हैं । आज मनुष्य और महामारी के बीच संग्राम छिड़ गया है । आज मठ के प्रत्येक संन्यासी को अपनी सचाई का प्रमाण देना है । ऐसी सेवा करो , इतनी परिचर्या करो , इतनी सहानुभूति बरसाओ कि मठ में आया हुआ कोई भी रोगी मृत्यु से पराजित न होने पाए । धन की कमी होने पर मठ की भूमि बेच दूंगा । चिंता न करना । " स्वामी जी की प्रभावोत्पादक पुकार पर संन्यासी , जीवन के देवदूतों की भांति रोगियों की सेवा में जुट गए । 

विवेकानंद जी की स्मृतियाँ

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 स्वामी विवेकानंद विश्व - भ्रमण पर थे । वे अपने उपदेशों से भारतीय संस्कृति व धर्म की श्रेष्ठता का शंखनाद कर रहे थे । इसी बीच जापान के एक विद्वान ने उनसे पूछा- " भारत में गीता , रामायण , वेद , उपनिषद् आदि का इतना उच्च ज्ञान व दर्शन उपलब्ध है ; फिर भी भारतवासी पराधीन और निर्धन क्यों बने हुए हैं ? " इस पर स्वामी विवेकानंद ने उत्तर दिया- " सर्वश्रेष्ठ व शक्तिशाली बंदूक हुए भी उसके उपयोग की विधि उसका मालिक न जाने तो बंदूक से वह अपनी रक्षा नहीं कर सकता । यही विडंबना है कि अपने श्रेष्ठ धर्म व संस्कृति के होते हुए भी भारतवासी तदनुरूप उसका आचरण नहीं करते । धर्म की महत्ता उसके आचरण में निहित है ।  

गुरुतीर्थ

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गुरुतीर्थ बड़ा उत्तम तीर्थ है , मैं उसका वर्णन करता हूँ । गुरु के अनुग्रह से शिष्य को लौकिक आचार - व्यवहार का ज्ञान होता है , विज्ञान की प्राप्ति होती है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है । जैसे सूर्य सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करते हैं , उसी प्रकार गुरु शिष्यों को उत्तम बुद्धि देकर उनके अन्तर्जगत् को प्रकाशपूर्ण बनाते हैं । सूर्य दिन में प्रकाश करते हैं , चन्द्रमा रात में प्रकाशित होते हैं और दीपक केवल घर के भीतर उजाला करता है ; परन्तु गुरु अपने शिष्य के हृदय में सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं । वे शिष्य के अज्ञानमय अंधकार का नाश करते हैं , अत : शिष्य के लिए गुरु ही सबसे उत्तम तीर्थ साभार - कल्याण , पद्मपुराणांक

प्रेरक प्रसंग 2

गेटे जर्मनी का एक बहुत बड़ा नाटककार हुआ है । वह अपने कार्य में इतना रम गया कि अपने आप को इस विश्व का एक पात्र ही अनुभव करने लगा था । मरते समय उसके चेहरे पर बच्चों जैसी मुस्कराहट थी । अंतिम साँस छोड़ते हुए उसने जोर से ताली बजाई और उपस्थित लोगों को उँगली के इशारे से बताया- " लो अब परदा गिरता है और एक बढ़िया नाटक का अंत होता है । " वस्तुत : जीवन ऐसा ही जीना चाहिए , जैसे नाटक का एक कलाकार जीता है । इसी को आध्यात्मिक संदर्भ में संत , भगवान की कठपुतली बनकर जीने के रूप में समझाते हैं ।

संक्रमण काल

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समय  यह संक्रमण काल का   धैर्य का  मनुहार  का , भावनाओं के पहचान  का ।            नहीं  समय  यह             कुमंत्रनाओ  का            नहीं समय यह             विचारों   के जंजाल का   है  समय यह संक्रमण काल का । धैर्य का साहस  और आत्मविशस  का ।           मौन  हो  गई है सड़कें,           खामोश  हो गयी है दरवाजे           तरस  गई है आँखे           किसी  की आहटों  के लिए । काल ने  करवट ली है  हमारी  तुम्हारी  परीक्षा  की  घड़ी  है ।           है समय यह             भावनाओं  का            संवेदनाओं  का,...