देखो न

गुमशुम सी आँखों मे
 अब बस इंतज़ार रह गई,
सूजी हुई आँखें, 
 मुरझाए हुए चेहरे-
चेहरे पर उदासी
और आँखों में इंतज़ार।

टकटकी लगाए दरवाजे पर
किसी के आने का इंतज़ार, 
 मुझे देखकर वो बुदबुदायी-
मैंने कई पौधे लगाए थे आंगन मे 
सभी को सींचे,
सभी पौधों मे खुबशुरत फूल 
 और उसकी खुशबु, चारोओर-
सुगंध ही सुगंध,
खिलखिलाती,चहकती गौरैया की आवाज़।

देखो सभी फूल कैसे मुरझा गए,
वो फुदकती चिडियाँ भी न जाने
कहाँ अपना घोंसला बना ली,
 अब मैं किसी फूल में पानी जो नहीं डालसकती ।
देखो न
 इसलिए सभी फूल कैसे मुझसे रूठ गये ।
 रातों  की नींद गवांई  मैंने,
 सुख और चैन खो दिया- 
 फिर भी पता नहीं क्या कमी रह      
  गयी जो सारे मुरझा गये ?
 कहाँ गलती की थी मैंने?
 वही ढूंढ रही हूँ 
 बस अब वही सोचती रहती हूँ ।
 देखो न
 इस देहलीज पर मेरे महावर      
 लगे पाँव परे थे न ,
 कोमल सी , उजली सी मखमल  
 सी।
 काले घने मेरे लहराते बाल  
 और वो आँखे ,
 आँखों में चमक ।
 अभी भी याद करती हूँ न तो 
  मुझे सिहरन सी होती है,
 अंतर्मन में हलचल सी मच 
  जाती है । 

  उनकी थर्राती आवाज़ मैं 
  सुनती रही, सोचती रही और 
  वो बोलती रही ।
   
  देखो न, 
  मैं तो पायदान बन गई,
  बङी मेहनत से सजाई थी
  अपनी छोटी सी बगिया 
  किसी की नज़र लग गई 
  शायद ;
  देखो न ,
  मैं रानी थी और वो राजा 
  भरे दरबार में बगिया सींचने 
  वाले भी बहुत थे
  एक दिन राजा सैर पे गये और  
  कभी वापस न आए।
  मैंने कभी नहीं सोची थी 
  जीवन की बगिया ऐसी होती 
  है।
  सुख-दुख , जीवन-मरण  ,हानि-लाभ का मिश्रण 
  सत्य का खेल ।
  देखो न 
  न राजा रहा न मैं रानी और न 
  मेरी बगिया सबो ने अपने 
  घोंसले अलग बना लिए 
  अब तो बस मैं इंतज़ार ही 
  करती हूँ अकेली ।
  कंधों में अब मजबूती भी 
  न रही 
  मजबूत कंधों पर सभी बोझ 
  ढोए मैंने ।
  देखो न 
  अब तो मैं ही बोझ बन गई 
  लेकिन एक तो बस एक है।
  यही तो बस नहीं समझ पाई 
  मैं;
  एकनिष्ठ का कभी अनिष्ट नहीं 
  होता
  यही मंत्र नहीं सीख पाई मैं ।
  देखो न 
  मैंने समेट ली है सारी पत्तियां 
  और फूल
  अपनी बगिया भी अब छोटी 
  कर ली है, बस एक रखी है ।
  अब मैं उसमें ही अपनी किरणें 
  बिखेरती हूँ और वो खिल 
  उठता है ।
  मैं उसे देखकर खुश होती हूँ ।
                                          
                  By Nitu Singh
          
  (This poem throws light on the realisation of a human about the connection with the  almighty after being disappointed by  the selfishness of the worldly relationships; especially a mother who feels lonely by being left out by her children) 


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